ये चिनगारी चरागों की
ये चिनगारी चरागों की, कहीं शोले न बन जाए । कहीं शबनम की ये बूंदे, बरस ओले न बन जाए ।।
निरन्तर बढ़ रही शहरें, ये धुआँ कारखानों की । ये हरियाली जो खेतों की, कहीं पीले न पड़ जाए ।।
ये आबादी शहरवादी, क्या जाने सुख की सच्चाई । ये पीपल आम की छाया, गाम टोले न मिट जाए ।।
संग
वसन्ती भाव में उपवन, सुमन का साज ओ शृंगार । बरसती पावस बिनु सरिता, तरस नाले न बन जाए ।।
अरविंद कुमार मिश्रा(नीरज)