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शंकर मिश्र अयाची
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छोड़कर किस ओर छोड़कर किस ओर मुझको जा बसी. ओ मेरी प्रियकामिनी मृदुभाषिनी ओ उर्वसी । जब छिटकती दसन दामिनी नभवसी, थी छलकती कलश जैसी वो हँसी ।। आज तुम हो दूर हमसे बेवसी, ओ मेरी प्रियकामिनी मृदुभाषिनी ओ उर्वसी । क्या कहो है भावना संभावना है फिर मिलन, क्या कहो गुलजार होगा गुलबदन मेरा चित-चमन ।। दे बता किसके बिछाए जाल में तू जा फँसी, ओ मेरी प्रियकामिनी मृदुभाषिनी ओ उर्वसी । तू गई तो ले गई मेरे चैन को, छोड़कर मुझसा विवश बेचैन को ।। क्या मिलेगा दरश फिर इस नैन को, ओ कला कमनीयता की रूपसी । ओ मेरी प्रियकामिनी मृदुभाषिनी ओ उर्वसी ।।